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आखिर लोग क्यों कर लेते है आत्महत्या…

नई दिल्ली। आजकल का मानव जीवन भागदौड़ और आपाधापी से भरा हुआ है। लोग अपने सुख से इतने सुखी नहीं दिखते जितना दूसरे के सुख को देखकर दुखी नज़र आते है। अगर आप अपनी आँखे बंद करले तो आपको सिर्फ एक भागता दौड़ता शहर नज़र आता है। इस शहर में बसने वाला ज़्यादातर आदमी अपने स्वार्थ में इतना ज़्यादा मशगूल हो चुका है कि उसे किसी भी बात की फिक्र नहीं रह गई है। उसकी ज़िन्दगी का सिर्फ एक ही लक्ष्य है अपनी जिंदगी को बेहतर बनाना।

इंसान की यह ज़िन्दगी की रफ्तार देखकर तो गुलज़ार साहब की कही हुई एक बात याद आती है कि ए ज़िन्दगी तुझे बेहतर बनाने की कोशिश में हम तुझे ही नहीं जी पा रहे। लेकिन इस आपाधापी के चलते इंसान को कामयाबी तो मिल रही है पर उसी के साथ मिल रहा है टेंशन, स्ट्रेस, डिप्रेशन और कई बार इन सब का अंजाम बनती है आत्महत्या या खुदकुशी की घटना। जहाँ एक इंसान अपने जीवन की अटकलों से इस कदर तंग आ चुका होता है कि जिंदगी से उसका मन भर जाता है। वह अपनी जंग लड़ने में अपने आपको असहज और असहाय पाता है और थक हार कर एक दिन ज़िन्दगी की कड़वी घूँट पीना बंद कर देता है और मौत को गले लगा लेता है और उसकी मौत को आत्महत्या का नाम दे दिया जाता है।

चलिए अब आपको बताते है कि आज यह आत्महत्याओं के आकड़े क्यों बढ़ते जा रहे है, जो आज से कुछ साल पहले तक बेहद कम हुआ करते थे। दरअसल, आज इंसान अपनी महत्वकांझाओं के आगे बेबस और लाचार नज़र आता है। वह दूसरे के बड़े घर, बड़ी गाड़ी अच्छी सैलेरी और तड़कता-भड़कता लाइफस्टाईल देखकर मन ही मन कुढ़ता रहता है। उन चीज़ो को हासिल करने के लिए वह तरह-तरह के जतन करता है। किसी से पैसे उधार लेकर वह व्यक्ति वह चीज़े लेता है जिसकी वह देख-रेख भी करने के खुद को योग्य नहीं पाता और कर्ज़ में डूबता चला जाता है। धीरे-धीरे उसका वह टेंशन स्ट्रेस का रुप ले लेता है और फिर वह डिप्रेशन का शिकार बन जाता है।

डिप्रेशन का शिकार होने के चलते उसी पूरी दुनिया अजनबी लगती है। उसका व्यवहार दिन पर दिन चिड़चिड़ा होने लग जाता है। वह अपने आप को भीड़ में भी अकेला ही पाता है। उसकी ज़िन्दगी बेरंग हो चुकी होती है। वह इंसान सकारात्मक से नकरात्मक जीवनशैली की ओर चल पड़ता है। और ऐसा इंसान कुछ समय बाद खुदकुशी कर लेता है और अपने पिछे एक रोता-बिलखता परिवार छोड़ जाता है। ऐसा नहीं है कि ऐसे व्यक्ति को बचाया नहीं जा सकता ऐसे में दोस्तों और परिवार की भूमिका काफी अहम हो जाती है। उन्हें उसे यकीन दिलवाना चाहिए कि वह सब उसके साथ है और जीवन की कठनाईयां बस कुछ दिनों के लिए है और जितनी जल्दी हो सके उसे मनोचिकित्सक के पास इलाज के लिए ले जाना चाहिए।

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BRIJESH SINGH
the authorBRIJESH SINGH