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सिर्फ अक्षमता के अनुरूप नहीं, सभी के लिए बनाएं योजनाएं

भारत में अक्षम लोगों के लिए सुविधाएं अक्सर दो दोषों से जूझती हैं। पहली, जहां वह मुहैया कराई जाती हैं, वहां उसकी जरूरत नहीं होती और जहां जरूरत होती है, वहां मुहैया नहीं कराई जाती। रैंप को ही ले लीजिए। रैंप को अक्षम लोगों को चढ़ने व उतरने के लिए बनाया जाता है, लेकिन बच्चों के खेलने के मैदान में जरूरत से अधिक स्लाइड होती है। इससे न केवल व्हीलचेयर का उपयोग करने वालों को दिक्कत होती है, बल्कि उन्हें ऊपर चढ़ने के लिए लोगों से धक्का लगवाना पड़ता है। यह न केवल वित्तीय संसाधनों की बर्बादी है, बल्कि स्पष्ट रूप से विकलांग अधिकार (आरपीडब्ल्यूडी) अधिनियम, 2016 का उल्लंघन है।

आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम में समावेशन की व्यवस्था है। अधिनियम के तहत अक्षम लोगों के साथ अलग बर्ताव नहीं किया जाना चाहिए। यह भारतीय संविधान का मूल सिद्धांत है..हम सब समान नागरिक हैं, जिनके अधिकारों के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता। लेकिन जिंदगी की शुरुआत से अक्षम लोगों को पीछे छोड़ दिया जाता है। आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम और शिक्षा का अधिकार अधिनियम दोनों ही समावेशी शिक्षा पर और प्रत्येक बच्चे के साथ मर्यादा से बर्ताव किए जाने की जरूरत पर जोर देते हैं। स्कूलों को सभी बच्चों की आवश्यकताओं का ध्यान रखना चाहिए, ताकि अक्षम बच्चे बिना किसी दिक्कत के पढ़ाई कर सकें। दुनिया भर में अभी भी 90 फीसदी अक्षम बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं। भारत में 1.20 करोड़ अक्षम बच्चों में से केवल एक फीसदी ही स्कूल जाने में सक्षम हैं।

अक्षम बच्चे दाग, भेदभाव, पहुंच से परे परिवहन, अर्धनिर्मित कक्षाओं और शिक्षकों जैसी बाधाओं के कारण स्कूल जाने से कतराते हैं। अक्षम बच्चों के साथ हिंसा होने का 1.7 गुणा अधिक जोखिम होता है और अन्य लोगों के मुकाबले स्वास्थ्य देखभाल नहीं मिलने का तीन गुणा जोखिम रहता है। विकासशील अक्षमता वाले बच्चे अधिक हाशिए पर रहते हैं। वे भेदभाव, हिंसा, दुर्व्यवहार और उत्पीड़न के प्रति संवेदनशील होते हैं। लेकिन इस समस्या को हल करने के लिए अधिकारियों में कोई जल्दबाजी दिखाई नहीं देती है।

अक्षम लोगों के साथ निरंतर यह दाग बरकरार रहता है और शुरुआत से ही उनके अधिकारों का हनन होता आ रहा है। अगर वे सभी बाधाओं को पार कर किसी तरह व्यवस्था से लड़ कर अपनी स्कूली शिक्षा या कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर लेते हैं तो वे अक्षमता पेंशन के महान इनाम के योग्य हो जाते हैं, जो कि 500 रुपये महीना है। अधिकतर इससे संतुष्ट हो जाते हैं, क्योंकि जब वे नौकरियों के लिए आवेदन करते हैं तो उनकी अहर्ता विवरणिका को सामाजिक पूर्वाग्रह की दृष्टि से देखा जाता है। ऐसा माना जाता है कि अक्षम लोग ‘बेचारे’ होते हैं, जो वास्तव में अपना काम लाभकारी ढंग से नहीं कर सकते। यह पूर्वाग्रह सभी पूर्वाग्रहों की तरह त्रुटिपूर्ण है, क्योंकि यह लोगों की एक-दो अक्षमताओं पर केंद्रित होता है और उनकी क्षमताओं को पूर्ण रूप से नजरअंदाज करता है।

क्यों इतनी आसानी से अक्षमता को नजरअंदाज कर दिया जाता है? क्यों हमने खुद को केवल बड़ी चिंताओं तक ही सीमित कर लिया है और केवल 80 फीसदी आबादी के लिए योजनाएं बनाई जाती हैं? क्यों सभी इसमें समाहित नहीं होते? जब हम अक्षमता के अनुरूप योजना बनाते हैं तो हमें उसे सभी के अनुरूप बनाना चाहिए। इसके अलावा, ऐसा नहीं है कि अक्षमता कोई अजीब चीज है, जो कुछ ही आबादी को होती है। अक्षमता में हम या वे नहीं होना चाहिए। कोई कभी यह नहीं कह सकता कि वे कभी अक्षमता से प्रभावित नहीं हो सकते।

एक देश के रूप में हम अक्षमता को व्यवस्थित ढंग से नजरअंदाज करते आ रहे हैं। हमने इसे प्रासंगिक रूप में मान्यता देना शुरू नहीं किया है। क्यों अभी भी हमें एनएसएसओ सर्वे, एसडीजी/ऑडिट/डेटा संग्रह करने का कार्य करते हुए अक्षमता पर सवाल डालते वक्त मुश्किल होती है? क्यों अक्षम लोगों की जिंदगी में चुनौतियों पर किसी भी प्रकार के आंकड़े बमुश्किल उपलब्ध होते हैं?

इसका जवाब सराहनीय नहीं है। एक समाज के रूप में हम हमेशा अक्षमता को दया या घृणा के रूप में देखते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को मानवता की नजर से देखने का प्रयास किया जाए और पक्षपात व रूढ़िवादिता की पट्टी आंखों पर न बांधी जाए। अक्षम लोग दया के पात्र नहीं हैं। वे त्यागे जाने के हकदार नहीं हैं या उनके साथ असहायों की तरह बर्ताव नहीं किया जाना चाहिए, जिन्हें हमारे दान की जरूरत है।

अक्षमता मानवीय विविधता का हिस्सा है। प्रत्येक इंसान के पास गर्व के साथ जीने का अधिकार है और अक्षम लोग संपन्न चित्रपट का हिस्सा हैं, जो कि मानवीय परिवार है। लोगों को अलग करने के लिए अलग जगह का निर्माण मत कीजिए। यह पक्षपात ही है, जो अक्षम लोगों को ‘बेचारा’ बनाता है। एक परवाह करने वाले विश्व का निर्माण करें, जिसमें सभी शामिल हों।

(अरमान अली नेशनल सेंटर फॉर प्रमोशन ऑफ इंप्लॉयमेंट फॉर डिसेबल्ड पीपुल के कार्यकारी निदेशक हैं। ये इनके निजी विचार हैं।)

 

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