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मीडिया में नकारात्मक बहस जारी रहते कश्मीर में रमजान पर संघर्ष विराम निर्थक

मैंने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को इससे पहले भाजपा सरकार की इस प्रकार पूरी तरह अवज्ञा करते कभी नहीं देखा। रमजान के महीने में संघर्षविराम की घोषणा करके कश्मीर को शांत करने के गृहमंत्री राजनाथ सिंह के प्रयास को ‘पाकिस्तान और आतंकवादियों का तुष्टिकरण’ करने का प्रयास करार दिया गया है।

टीवी स्क्रीन पर छह खिड़कियों में से एक से झांकते एक मेहमान जोर-शोर से कह रहे हैं, हमारे जवानों के हत्यारों का बेशर्मी से तुष्टिकरण किया जा रहा है। एक अन्य ने इससे आगे बढकर कहा, एक साहसी देश वही करता है, जो श्रीलंकाई सेना ने लिट्टे के साथ किया – उन्हें खत्म कर दिया। गुरुवार शाम को चैनल आजतक पर प्रसारित इस शो के मेजबान उन दोनों से भी अधिक आक्रोश से भरे नजर आए। प्रत्यक्ष तौर पर यह बेहद आम दृश्य है।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) को अपनी कश्मीर इकाई से संकेत मिल रहे हैं कि उसे शायद अपना नाम बदलना पड़ सकता है। भाकपा के नाम में शामिल ‘आई’ यानी भारतीय कुछ समय से पार्टी की राज्य इकाई के लिए परेशानी का सबब बन गया है। लेकिन हालिया गोलीबारी, पथराव, ‘मुठभेड़’, विलाप करती महिलाओं, शवयात्राओं के पीछे चलती भीड़, मीडिया की अथक जुमलेबाजी के चलते यह ‘आई’ अब शारीरिक खतरे को आमंत्रित करने वाला बन गया है। यह सच है, कि एक निष्क्रिय पार्टी भले ही किसी भी नाम से हो, वह निष्क्रिय ही रहेगी, फिर भी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ कश्मीर को कम से कम सड़कों पर आक्रोश का तो सामना नहीं करना पड़ेगा।

रमजान के दौरान तुलनात्मक रूप से शांति स्थिति का जायजा लेने का अच्छा मौका है। पी.वी. नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान भी नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी का समरूप राजनीतिक नियंत्रण था। सड़कों की नब्ज पर हुर्रियत के तत्वों की उंगली हुआ करती थी। लेकिन हाल ही में दृश्य अराजक हो गया है और कोई नियंत्रण नहीं रहा है।

विश्वसनीय सूत्र हाल ही में हिंसा में वृद्धि को स्थानीय करार देते हैं, लेकिन अधिकारी ऐसा नहीं मानते।

कश्मीर जब उबल रहा था, तभी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर को लेकर बवाल मच गया।

यह मेरे उन दोस्तों की भूल है, जो अलीगढ़ में मचे उपद्रव को देश को बांटने में जिन्ना के दोष पर गंभीर चर्चा करने का मौका समझ रहे हैं। अलीगढ़ के उपद्रवी एएमयू के छात्रसंघ कार्यालय से जिन्ना की तस्वीर हटाने के लिए अपनी छाती नहीं ठोक रहे थे। बल्कि स्थिति इसके विपरीत है। हिंदू युवा वाहिनी अलीगढ़ के उत्तेजित संगठनों को जिन्ना को विश्वविद्यालय के परिसर में संरक्षित करने के लिए जी-जान लगा देने के लिए उकसाना चाहती थी। यह ऐसा गोला-बारूद है, जो बाद में किसी भी समय काम आ सकता था। और विश्वविद्यालय परिसर प्रस्तावित हिंदू राष्ट्र की सेवा में बार-बार विस्फोट करने के लिए आयुध डिपो का काम करेगा।

हालिया दशकों में यह पहला मौका नहीं है, जब एएमयू को भगवा राजनीति के लिए इस्तेमाल किया गया। अलीगढ़ अकसर इस रणनीति का निशाना रहा है। 90 के दशक में कोई अरनब गोस्वामी नहीं था, लेकिन हिंदी समाचार पत्रों ने हिंदू-मुस्लिम के बीच की लकीर को और गहरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

समाचार पत्रों में एक खबर प्रकाशित हुई कि अलीगढ़ में बर्बर हिंसा के बाद इलाज के लिए यूनिवर्सिटी मेडिकल कॉलेज ले जाए जा रहे कुछ घायल हिंदुओं को मुस्लिम डॉक्टरों और इंटर्न्स ने मार डाला। हालांकि विश्वविद्यालय नई दिल्ली से महज तीन घंटे की दूरी पर है, लेकिन समाचार पत्रों ने बिना तथ्यों की जांच किए एजेंसी की कॉपी पर भरोसा किया, जिसमें ऊंची जाति के हिंदी समाचार पत्रों से उद्धरण लिए गए थे।

विश्वविद्यालय के बाहरी इलाके में एक अद्भुत दृश्य का मंचन किया जा रहा था। आम के पेड़ के नीचे कुर्सियों पर बैठे स्थानीय पत्रकार चाय पी रहे थे और अलीगढ़ से भाजपा विधायक कृष्ण कुमार नवमान अस्पताल में हत्याओं की दास्तान सुनाकर उन्हें अचंभे में डाल रहे थे।

मैंने पूछा, क्या किसी ने मेडिकल कॉलेज का दौरा किया है? सभी ने यह कहकर इंकार कर दिया कि यह जोखिमभरा है।

मेडिकल कॉलेज में दृश्य बिल्कुल अलग है, भयभीत डॉक्टर मुझे घेरकर शिकायत करते हैं, कोई भी स्पष्टीकरण के लिए हमारे पास नहीं आया।

उन्होंने अपनी कहानी के साथ पत्रकारों से संपर्क क्यों नहीं किया? इस प्रश्न पर लंबी चुप्पी के बाद उन्होंने कहा कि उन्हें लगा कि सांप्रदायिक हिंसा के माहौल में परिसर से बाहर निकलना खतरनाक होगा। इस स्थिति को मैं गैरसंस्थागत नस्लभेद कहता हूं।

जिस स्तर पर मैंने उस दिन देखा और ऊपर जिसका जिक्र किया, उस स्तर पर भगवा राष्ट्रवाद को मन में भरने के लिए 30 साल पहले कोई टीवी चैनल नहीं थे।

अलीगढ़ में पैदा हुए हालात से अत्यधिक उत्तेजित लोगों को यह संतोष दे सकता है कि पाकिस्तान के जिन्ना ही एकमात्र ऐसे नेता नहीं हैं, जिन्हें लेकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया जा सकता है। पश्चिम बंगाल के 24 परगना के काकीनाडा में राम नवमी के जुलूस में शामिल लोग राम के उत्साह में इतना भर गए थे कि उन्होंने भारत के पहले शिक्षा मंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आजाद की प्रतिमा को गिरा दिया। वह शख्सियत जो जिन्ना के बिल्कुल विपरीत थे। यह सब पंचायत चुनाव की तैयारी के तौर पर किया गया।

गुरुग्राम में नमाज विरोधियों, या अकबर रोड पर महाराणा प्रताप की तख्ती चिपकाने वालों को संरक्षण, हालिया प्रचार अभियान के दौरान मोदी की टीपू सुल्तान को लेकर मुठ्ठी भींचना, यह सब 2019 के लिए हिंसा पैदा करने के छोटे-छोटे वाकये हैं। इस गेमप्लान में कश्मीरियों, मुसलमानों या भारत-पाकिस्तान के बीच शांति चाहने वालों के लिए कोई असली और दीर्घ स्थायी राहत नहीं है। इसके साथ ही दलितों और जनजातीय लोगों के लिए आक्रोश भी अनियंत्रित हो रहा है।

मुस्लिम विरोध बनावटी है, जिसके राजनीतिक कारण हैं, लेकिन दलित और जनजातीय लोग जो दंड झेल रहे हैं, वह जन्मजात है।

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