नई दिल्ली| दिल्ली उच्च न्यायालय ने शुक्रवार को फैसला दिया कि भारत के महान्यायवादी का कार्यालय सूचना के अधिकार अधिनियम के दायरे में नहीं आता है। अदालत ने कहा, “महान्यायवादी कार्यालय का प्रमुख कार्य वैधानिक मामलों में सरकार को सलाह देना है।”
मुख्य न्यायाधीश जी. रोहिणी और न्यायमूर्ति जयंत नाथ की खंडपीठ ने कहा कि महान्यायवादी भारत सरकार के एवज में अदालत में पेश होते हैं और सरकार के साथ उनका विश्वास का रिश्ता है इसलिए उनकी राय या सरकार द्वारा उनके पास भेजी गई सामग्री को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता है।
अदालत ने एकल पीठ के मार्च, 2015 के एक फैसले को निरस्त कर दिया जिसमें कहा गया है कि शीर्ष कानून अधिकारी पारदर्शिता कानून के तहत जनता के प्रति जिम्मेदार हैं, क्योंकि वह सार्वजनिक काम करते हैं और उनकी नियुक्ति संविधान द्वारा नियंत्रित होती है।
अदालती आदेश में कहा गया है, ” प्रमुख रूप से महान्यायवादी कानूनी मामलों में सरकार को सलाह देने का काम करते हैं और एक वैधानिक स्वरूप वाले अन्य कार्य करते हैं जो उन्हें सौंपे जाते हैं। महान्यायवादी प्रशासनिक या अन्य प्राधिकारियों की श्रेणी में रखे जाने वाले पदाधिकारी नहीं हैं जो लोगों के अधिकारों या देनदारियों को प्रभावित करते हैं।”
सूचना के अधिकार कानून (आरटीआई) के तहत कोई भी सरकारी कार्यालय या प्राधिकरण या सरकार द्वारा पर्याप्त वित्त पोषित कोई संगठन पारदर्शिता कानून के दायरे में आता है। एकल पीठ के निर्णय के खिलाफ सरकार की अपील पर सुनवाई करते हुए अदालत ने यह आदेश किया था।
एकल पीठ ने आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चंद्र अग्रवाल और आर.के. जैन की दो याचिकाओं पर सुनवाई करते यह आदेश किया था, जिसमें सूचना के अधिकार कानून के तहत महान्यायवादी के कार्यालय को एक सार्वजनिक प्राधिकरण के रूप में घोषित करने की मांग की गई थी।
एक याचिका में केंद्रीय सूचना आयोग के उस निर्णय को भी चुनौती दी गई थी जिसमें कार्यालय को आरटीआई कानून के दायरे से बाहर बताया गया था।